तख्त श्री दमदमा साहिब न केवल एक धार्मिक स्थल है बल्कि यह सिख धर्म के इतिहास, शौर्य, साहित्य, शिक्षा और विरासत का प्रतीक है। यह वह स्थान है जहाँ बलिदान और भक्ति की पराकाष्ठा एक साथ मिलती है। जो भी सिख इतिहास को जानना चाहता है, उसके लिए दमदमा साहिब एक जीवंत ग्रंथ है।
1704 ईस्वी में औरंगजेब के आदेश पर मुगलों और पहाड़ी राजाओं की संयुक्त सेना ने आनंदपुर साहिब को घेर लिया। महीनों तक घेरा बना रहा, जिससे अंदर खाद्यान्न और जल की भारी कमी हो गई।
मुगलों ने गुरु गोबिंद सिंह जी से यह वादा किया कि अगर वे किला छोड़ दें तो उन्हें और उनके सिखों को सुरक्षित मार्ग दिया जाएगा। शुरुआत में गुरु जी ने इन वादों पर अविश्वास किया, लेकिन अंततः संगत की हालत देखकर उन्होंने सुरक्षित मार्ग के वादे को स्वीकार कर लिया।
जैसे ही सिख काफिला आनंदपुर साहिब से निकला, सरसा नदी के किनारे पहुंचे, तो मुगलों ने अपने वादे से मुकरते हुए उन पर हमला कर दिया। बारिश के कारण नदी उफान पर थी और सिखों को मजबूरी में पार करना पड़ा। इसी दौरान गुरु जी का परिवार बिछड़ गया।
- माता गुजरी जी और दो छोटे साहिबजादे (ज़ोरावर सिंह और फतेह सिंह) अलग हो गए।
- दो बड़े साहिबजादे (अजीत सिंह और जुझार सिंह) गुरु जी के साथ चमकौर की ओर बढ़े।
चमकौर की गढ़ी में गुरु गोबिंद सिंह जी और उनके 40 सिखों ने मुगल सेना का मुकाबला किया। इसी युद्ध में साहिबजादा अजीत सिंह (18) और साहिबजादा जुझार सिंह (14) ने लड़ते-लड़ते वीरगति पाई। यह सिख इतिहास की सबसे हृदयविदारक घटनाओं में से एक है, जहाँ एक पिता ने अपने पुत्रों को धर्म और सच्चाई के लिए बलिदान होते देखा।
दूसरी ओर, सरहिंद में वज़ीर खान के आदेश पर दो छोटे साहिबजादों को किले की ठंडी बुर्ज में बंद किया गया। 26 दिसंबर 1705 को, उन्हें दीवार में जिंदा चिनवाकर शहीद कर दिया गया। फतेह सिंह महज 6 वर्ष के थे, जो इतिहास के सबसे कम उम्र के शहीद माने जाते हैं।
चमकौर और मुक्तसर की लड़ाइयों के बाद, गुरु गोबिंद सिंह जी ने दक्षिण की ओर रुख किया और तलवंडी साबो (वर्तमान बठिंडा) पहुंचे।

तख्त श्री दमदमा साहिब: सिख इतिहास का एक गौरवपूर्ण अध्याय
तख्त श्री दमदमा साहिब, सिख धर्म के पाँच पवित्र तख्तों में से एक है। यह स्थान तलवंडी साबो, बठिंडा (पंजाब) में स्थित है और इसे “गुरु की काशी” के नाम से भी जाना जाता है। दमदमा का शाब्दिक अर्थ है “विश्राम करने की जगह”, और यह नाम उस समय से जुड़ा है जब दसवें सिख गुरु, श्री गुरु गोबिंद सिंह जी, आनंदपुर साहिब से निकलकर यहां रुके थे।
साल 1705-06 के दौरान, जब गुरु गोबिंद सिंह जी मुगलों और पहाड़ी राजाओं के साथ लगातार संघर्ष के बाद तलवंडी साबो पहुंचे, तब उन्होंने इस स्थान को शांति और पुनर्गठन के केंद्र के रूप में चुना। यह वही स्थान है जहां गुरु जी ने श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी का अंतिम और प्रामाणिक स्वरूप तैयार किया।







गुरु ग्रंथ साहिब का संशोधन: दमदमा वाली बीर की रचना
तख्त श्री दमदमा साहिब का सबसे प्रमुख ऐतिहासिक योगदान यह है कि यहीं पर गुरु गोबिंद सिंह जी ने गुरु अर्जुन देव जी द्वारा संकलित आदि ग्रंथ में अपने पिता गुरु तेग बहादुर साहिब जी की गुरबानी को जोड़कर, उसे एक पूर्ण, प्रामाणिक और अंतिम स्वरूप प्रदान किया।
इस रचना को दमदमा वाली बीर या दमदमी बीर के नाम से जाना जाता है। इसे भाई मनी सिंह जी ने गुरु जी के शब्दों को लिपिबद्ध करके तैयार किया। यह ग्रंथ आज सिखों के लिए शाश्वत गुरु है — गुरु ग्रंथ साहिब।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि: बलिदान, संघर्ष और विश्वास
इस स्थान का इतिहास केवल साहित्यिक नहीं, बल्कि बलिदानों और वीरता से भी भरा हुआ है। आनंदपुर साहिब के घेरे के बाद, जब गुरु गोबिंद सिंह जी ने आनंदपुर छोड़ दिया, तो उनके दो छोटे पुत्रों — साहिबजादा फतेह सिंह और साहिबजादा जोरावर सिंह — को सरहिंद में शहीद कर दिया गया।
इसके बाद मुक्तसर साहिब में एक निर्णायक युद्ध लड़ा गया और फिर गुरु जी तलवंडी साबो पहुंचे। यहीं से उन्होंने ज़फ़रनामा नामक ऐतिहासिक पत्र फारसी में औरंगज़ेब को लिखा जिसमें उसके विश्वासघात की निंदा की गई।
दमदमी टकसाल की स्थापना
दमदमा साहिब को सिख शिक्षा का केंद्र बनाया गया। इसी पृष्ठभूमि से दमदमी टकसाल की स्थापना हुई — एक पारंपरिक धार्मिक शिक्षण संस्था जो आज भी सिख धर्मग्रंथों की व्याख्या और प्रचार-प्रसार का कार्य करती है।
बाबा दीप सिंह जी को पहला जत्थेदार नियुक्त किया गया। उन्होंने यहाँ से श्री गुरु ग्रंथ साहिब की कई प्रतियाँ तैयार कर अन्य तख्तों को भेजीं।

प्रमुख गुरुद्वारे और सरोवर
तख्त परिसर और आसपास स्थित पवित्र स्थलों में शामिल हैं:
- गुरुद्वारा मंजी साहिब (पादशाही नौवीं और दसवीं)
- गुरुद्वारा लिखनसर साहिब
- गुरुद्वारा जंडसर साहिब
- गुरुद्वारा श्री नानकसर
- गुरुद्वारा माता सुंदरी और साहिब दीवान
- गुरुसर, नानकसर और अकालसर सरोवर — ये पवित्र तालाब श्रद्धालुओं के लिए अत्यंत पूजनीय हैं।
ऐतिहासिक वस्तुएँ और धरोहर
यहाँ पर आज भी कई दुर्लभ और ऐतिहासिक वस्तुएँ संरक्षित हैं:
- गुरु गोबिंद सिंह जी की तलवार
- बाबा दीप सिंह जी का खंडा
- प्राचीन गुरु ग्रंथ साहिब जी की प्रति (707 पृष्ठ)
- गुरु जी द्वारा उपयोग की गई राइफल और दर्पण
हर दिन सुबह और शाम संगत यहाँ दर्शन करती है।


प्रमुख शख्सियतें और योगदान
- भाई मनी सिंह जी: दमदमा वाली बीर के लिपिक
- बाबा दीप सिंह जी: पहले जत्थेदार, जिन्होंने ग्रंथ की प्रतियाँ तैयार कीं
- गुरु तेग बहादुर जी: गुरु की काशी की भविष्यवाणी की
- श्री केशगढ़ के संत सेवा सिंह जी: वर्तमान भवन निर्माण की देखरेख
तख्त की स्थापना और आधिकारिक मान्यता
तख्त श्री दमदमा साहिब को आधिकारिक रूप से 18 नवम्बर 1966 को सिख धर्म के पाँचवें तख्त के रूप में मान्यता प्राप्त हुई। यह मान्यता शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक समिति (SGPC) की आम सभा के प्रस्ताव के माध्यम से दी गई। इसके पहले, 1960 में एक उप-समिति ने 183 पन्नों की रिपोर्ट के माध्यम से इसकी सिफारिश की थी।
1999 में खालसा पंथ की त्रिशताब्दी के अवसर पर, भारत सरकार ने भी इसे आधिकारिक रूप से पाँचवां तख्त घोषित किया।
स्थान और महत्व
- स्थिति: तलवंडी साबो, बठिंडा से 28 किमी दक्षिण-पूर्व में
- अर्थ: ‘दमदमा’ का अर्थ है — विश्राम स्थल
- महत्व: गुरु जी ने इसे “गुरु की काशी” का दर्जा दिया, जहाँ विद्या, दर्शन और धर्मशास्त्र का प्रसार हुआ
तख्त श्री दमदमा साहिब कैसे पहुँचें?
- हवाई मार्ग: निकटतम हवाई अड्डा बठिंडा एयरपोर्ट (55 किमी दूर)
- रेल मार्ग: बठिंडा जंक्शन (30 किमी दूर)
- सड़क मार्ग: बठिंडा शहर से अच्छी सड़क सुविधा से जुड़ा है
प्रमुख आयोजन
तख्त श्री दमदमा साहिब पर हर साल यहाँ बैसाखी मेले का आयोजन होता है, जिसमें देश-विदेश से लाखों श्रद्धालु पहुंचते हैं। यह मेला न केवल आध्यात्मिक अनुभूति का माध्यम है बल्कि सिख एकता और सांस्कृतिक गौरव का प्रतीक भी है।
स्थापत्य और संरचना
वर्तमान भवन का निर्माण 1970 के दशक में हुआ। इसमें सफेद संगमरमर का बना सिंहासन, भव्य गुंबद, शीशे की सजावट और विशाल हॉल है। तख्त का गर्भगृह अत्यंत शांतिपूर्ण और आध्यात्मिक वातावरण प्रदान करता है।
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